यह सूरह 'अलिफ़, लाम, मीम' है। यह ईश्वरीय ग्रंथ है, इसके ईश्वरीय ग्रंथ होने में कोई संदेह नहीं। मार्गदर्शन है इन परमेश्वर से डरने वालों के लिए जो बिन देखे मान रहे हैं और नमाज़ की स्थापना कर रहे हैं और जो कुछ हमने इन्हें दिया है, उसमें से (हमारे मार्ग में) दान कर रहे हैं। और जो उसे भी मान रहे हैं जो तुम्हारी ओर उतारा गया और उसे भी जो तुम से पूर्व उतारा गया और वे परलोक पर विश्वास रखते हैं। यही अपने प्रभु के मार्ग पर हैं और यही हैं जो सफलता पाने वाले हैं। (1-5)
Mushafiq Sultan
आभार परमेश्वर ही के लिए है, समस्त लोकों का प्रभु, सर्वथा दया, जिसकी कृपा शाश्वत है, जो न्याय के दिन का स्वामी है। (1-3)
धर्म का सार यदि एक शब्द में बताया जाए तो क़ुरआन की परिभाषा में वह ईश्वर की “इबादत” है। समस्त लोकों का प्रभु इस दुनिया में अपने दास जनों से मूलतः जो चाहता है, वह यही है। परमेश्वर का वचन है: وَمَا خَلَقْتُ الْجِنَّ وَالْإِنسَ إِلَّا لِيَعْبُدُونِ “मैंने जिनों तथा मनुष्यों की रचना केवल इस लिए की है कि वे मेरी इबादत करें।“ (सूरह अज़्-ज़ारियात 51:56) पवित्र क़ुरआन ने जगह-जगह बड़े विस्तार के साथ कहा है कि परमेश्वर ने अपने पैगंबर (दूत) मानवता को इसी वास्तविकता से अवगत करने के लिए भेजे थे: وَلَقَدْ بَعَثْنَا فِي كُلِّ أُمَّةٍ رَّسُولًا أَنِ اعْبُدُوا اللَّهَ وَاجْتَنِبُوا الطَّاغُوتَ “हमने प्रत्येक समुदाय में एक रसूल इस आह्वान के साथ भेजा था कि परमेश्वर की इबादत करो और तागूत से बचो।“ (सूरह अन्-नहल 16:36) इस “इबादत” का अर्थ क्या है? यदि विचार करें तो यह सूरह नहल की इसी आयत से स्पष्ट है। परमेश्वर की इबादत के विपरीत यहाँ तागूत से बचने को कहा गया है। ‘अत्-तागूत’ और ‘अश्-शैतान’ क़ुरआन में समानार्थक प्रयुक्त हुए हैं, अर्थात जो परमेश्वर के सामने अवज्ञा, विद्रोह तथा अहंकार दिखाए। इसका विपरीतार्थक, स्पष्ट रूप से विनम्रता और विनय ही है। अतः “इबादत” के अर्थ भाषाविदों ने सामान्यतः इसी प्रकार बताए हैं कि: أصل العبودیۃ الخضوع والتذلل (इबादत वास्तव में विनम्रता तथा विनय है)[1]। यह गुण यदि प्रभु की दया, शक्ति, महानता और प्रज्ञता की उचित समझ के साथ उत्पन्न हो तो अपने आप को अपार प्रेम और असीम भय के साथ उसके समक्ष अत्यंत झुका देने का रूप धारण कर लेता है। खुशूअ, खुज़ूअ, इख्बात, इनाबत, ख़शीय्यत, तज़र्रु, क़ुनूत आदि, यह सारे शब्द क़ुरआन में इसी वास्तविकता के वर्णन के लिए प्रयुक्त हुए हैं। यह वास्तव में भीतर की दशा है जो एक मनुष्य के अंदर उत्पन्न होती और उसके पूरे अस्तित्व को घेर लेती है। ज़िक्र, शुक्र, तक्वा, इख्लास, तवक्कुल, तफ़्वीज़ और तस्लीम-ओ-रज़ा – यह सब परमेश्वर और उसके उपासकों के बीच इस संबंध के भीतरी रूप हैं। इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति इस संबंध में अपने प्रभु का स्मरण करने से संतुष्टि प्राप्त करता, उसकी कृपाओं पर उसके लिए आभार के भाव को अपने अंदर एक सैलाब की तरह उमड़ते देखता, उसके क्रोध से डरता, उसी का हो जाता, उसके भरोसे पर जीता, अपना हर काम और अपना पूरा अस्तित्व उसे सौंप देता और उसके हर निर्णय पर संतुष्ट होता है। मनुष्य के बाहरी अस्तित्व में यह संबंध जिन रूपों में प्रकट होता है, उनके बारे में क़ुरआन का वर्णन है:
(जावेद अहमद गामिदी की पुस्तक ‘मीज़ान’ का एक अंश) अनुवाद तथा टीका: मुश्फ़िक़ सुल्तान शैली की विशिष्टता तीसरी चीज़ यह है कि क़ुरआन की भाषा शैली अनोखी है। इसमें गद्य (prose) की सरलता और क्रमबद्धता है, अपितु इसे गद्य नहीं कहा जा सकता। यह काव्य की लय, ताल और संतुलन […]
مشفق سلطان مسلمانوں میں اس بات کی بڑی شہرت ہو گئی ہے کہ ہندو مذہبی کتابوں میں محمد رسول اللہ صلی اللہ علیہ وسلم کی آمد سے متعلق واضح پیشن گوئیاں موجود ہیں۔ ایک زمانے میں میرا بھی یہی خیال تھا اور اس کو بڑے زور کے ساتھ لوگوں کے […]
(जावेद अहमद गामिदी की पुस्तक ‘मीज़ान’ का एक अंश) अनुवाद तथा टीका: मुश्फ़िक़ सुल्तान भाषा की स्पष्टता दूसरी चीज़ यह है कि क़ुरआन केवल अरबी ही में नहीं, अपितु स्पष्ट अरबी में उतरा है। अर्थात एक ऐसी भाषा में जो अत्यन्त स्पष्ट है, जिसमें कोई अनिश्चितता नहीं है, जिसका प्रत्येक […]
(जावेद अहमद गामिदी की पुस्तक ‘मीज़ान’ का एक अंश) अनुवाद तथा टीका: मुश्फ़िक़ सुल्तान क़ुरआन अध्ययन के मूल सिद्धान्त पहले उन सिद्धांतों को लीजिए जो पवित्र क़ुरआन पर चिंतन-मनन के लिए आवश्यक हैं: अरबी-ए-मुअल्ला पहली चीज़ यह है कि क़ुरआन जिस भाषा में उतरा है, वह ‘उम्मुल क़ुरा’ (मक्का) की […]
(जावेद अहमद गामिदी की पुस्तक ‘मीज़ान’ का एक अंश) अनुवाद तथा टीका: मुश्फ़िक़ सुल्तान धर्म[1] परमेश्वर का वह मार्गदर्शन है जो उसने प्रथमतः मानव प्रकृति में प्रेरित किया और उसके बाद उसके आवश्यक विस्तार पूर्वक वर्णन के साथ अपने पैगंबरों के माध्यम से मनुष्य को दिया है। इस दीर्घकालीन श्रृंखला […]
Most of the Muslim world today is steeped in violent conflicts. Occasionally this violence spans out and hits other parts of the world. Though the reasons for this violence are not located entirely in Muslim societies, it has created an image of Islam, and Muslim societies, as being inherently violent. […]