धर्म का सार यदि एक शब्द में बताया जाए तो क़ुरआन की परिभाषा में वह ईश्वर की “इबादत” है। समस्त लोकों का प्रभु इस दुनिया में अपने दास जनों से मूलतः जो चाहता है, वह यही है। परमेश्वर का वचन है: وَمَا خَلَقْتُ الْجِنَّ وَالْإِنسَ إِلَّا لِيَعْبُدُونِ “मैंने जिनों तथा मनुष्यों की रचना केवल इस लिए की है कि वे मेरी इबादत करें।“ (सूरह अज़्-ज़ारियात 51:56) पवित्र क़ुरआन ने जगह-जगह बड़े विस्तार के साथ कहा है कि परमेश्वर ने अपने पैगंबर (दूत) मानवता को इसी वास्तविकता से अवगत करने के लिए भेजे थे: وَلَقَدْ بَعَثْنَا فِي كُلِّ أُمَّةٍ رَّسُولًا أَنِ اعْبُدُوا اللَّهَ وَاجْتَنِبُوا الطَّاغُوتَ “हमने प्रत्येक समुदाय में एक रसूल इस आह्वान के साथ भेजा था कि परमेश्वर की इबादत करो और तागूत से बचो।“ (सूरह अन्-नहल 16:36) इस “इबादत” का अर्थ क्या है? यदि विचार करें तो यह सूरह नहल की इसी आयत से स्पष्ट है। परमेश्वर की इबादत के विपरीत यहाँ तागूत से बचने को कहा गया है। ‘अत्-तागूत’ और ‘अश्-शैतान’ क़ुरआन में समानार्थक प्रयुक्त हुए हैं, अर्थात जो परमेश्वर के सामने अवज्ञा, विद्रोह तथा अहंकार दिखाए। इसका विपरीतार्थक, स्पष्ट रूप से विनम्रता और विनय ही है। अतः “इबादत” के अर्थ भाषाविदों ने सामान्यतः इसी प्रकार बताए हैं कि: أصل العبودیۃ الخضوع والتذلل (इबादत वास्तव में विनम्रता तथा विनय है)[1]। यह गुण यदि प्रभु की दया, शक्ति, महानता और प्रज्ञता की उचित समझ के साथ उत्पन्न हो तो अपने आप को अपार प्रेम और असीम भय के साथ उसके समक्ष अत्यंत झुका देने का रूप धारण कर लेता है। खुशूअ, खुज़ूअ, इख्बात, इनाबत, ख़शीय्यत, तज़र्रु, क़ुनूत आदि, यह सारे शब्द क़ुरआन में इसी वास्तविकता के वर्णन के लिए प्रयुक्त हुए हैं। यह वास्तव में भीतर की दशा है जो एक मनुष्य के अंदर उत्पन्न होती और उसके पूरे अस्तित्व को घेर लेती है। ज़िक्र, शुक्र, तक्वा, इख्लास, तवक्कुल, तफ़्वीज़ और तस्लीम-ओ-रज़ा – यह सब परमेश्वर और उसके उपासकों के बीच इस संबंध के भीतरी रूप हैं। इसका अर्थ यह है कि व्यक्ति इस संबंध में अपने प्रभु का स्मरण करने से संतुष्टि प्राप्त करता, उसकी कृपाओं पर उसके लिए आभार के भाव को अपने अंदर एक सैलाब की तरह उमड़ते देखता, उसके क्रोध से डरता, उसी का हो जाता, उसके भरोसे पर जीता, अपना हर काम और अपना पूरा अस्तित्व उसे सौंप देता और उसके हर निर्णय पर संतुष्ट होता है। मनुष्य के बाहरी अस्तित्व में यह संबंध जिन रूपों में प्रकट होता है, उनके बारे में क़ुरआन का वर्णन है:
धर्म
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(जावेद अहमद गामिदी की पुस्तक ‘मीज़ान’ का एक अंश) अनुवाद तथा टीका: मुश्फ़िक़ सुल्तान धर्म[1] परमेश्वर का वह निर्देश है जो उसने प्रथमतः मानव प्रकृति में प्रेरित किया और उसके बाद उसके आवश्यक विस्तार पूर्वक वर्णन के साथ अपने पैगंबरों के माध्यम से मनुष्य को दिया है। इस दीर्घकालीन श्रृंखला […]